कुछ न्यायसम्मत श्रुतियां हैं ज़िनमे से एक यह है क़ि न्याय होना ही नहीं चाहिये बल्कि होता हुआ दिखाई भी देना चाहिये। न्यायाधीश जब तक पद पर रहता है तब तक तो उसे निष्पक्ष रहना होता है ही लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद भी उसे इस प्रकार व्यवहार करना होता है कि उसके द्वारा पद पर बने रहते हुए जो न्याय किया गया है उसे लेकर उंगलियां न उठें। एक न्यायाधीश द्वारा उठाया गया अलोकप्रिय कदम, सम्पूर्ण न्यायपालिका की धवलता मैली कर देता है। और ऐसा कदम जब देश की न्यायपालिका के शीर्ष पर एक लम्बे अरसे तक बैठे हुए न्यायाधीश ने सेवानिवृत्ति के सन्ध्याकाल में एक के बाद एक देश की राजनीति से जुड़े महत्वपूर्ण फ़ैसले सत्ता के पक्ष में सुना कर उठाया हो तब तो दबी ज़ुबान से कहने के लिये विवश होना पड़ता है कि तौलते समय तराज़ू के दौनों पलड़े समान नहीं थे। और यह सब जानते हैं कि सत्ता की यारी में लाभ ही लाभ है जो भी राजनैतिक़ निर्णय विधायिका ने लिये इन पर जाते जाते न्यायपालिका की मोहर भी लग गई।
गत नवम्बर माह में सेवानिवृत्त हुए और पांच महिने के भीतर छः वर्ष का फिर राजपाट। आलोचना करने वाले तो शोर मचा कर चुप हो जाएंगे और जो घाव न्यायपालिका को लगा है वह भी शने:शने: भर जाएगा। वैसे भी ऐसा पहली बार तो नहीं हुआ है। इससे पहले भी देश की न्यायपालिका के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति को केरल का राज्यपाल बनाया गया था। हां, ऐसा हुआ था, लेकिन उसने ऐसे निर्णय नहीं सुनाए थे जिनसे देश की राजनीति प्रभावित होती है। जनता की याददाश्त कमजोर नहीं है। जिन चार न्यायाधीशों ने न्यायिक इतिहास में पहली प्रेसवार्ता की थी उनमें से एक यह पुरस्कृत न्यायपुरुष भी थे।अचानक जिस तरह इन महानुभाव ने यू टर्न लिया,सम्पूर्ण देश सकते में है। क्या सोचा था और क्या निकले। मेरे मत में जिन निर्णयों में इनके हस्ताक्षर हैं उन सभी में पुनरावलोकन याचिकाएं प्रस्तुत की जानी चाहिए।
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