Shri Ramchandra Sevadham Trust, Nawalgarh
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित् ॥
अनिष्ट - नरक और पशु-पक्षी आदि योनिरुप, इष्ट - स्वर्ग और देवयोनिरुप तथा मिश्र - इष्ट और अनिष्ट मिश्रित मनुष्य योनि रुप, इस प्रकार यह पुण्य-पाप रुप कर्मों का फल तीन प्रकार का होता है। ऐसा यह तीन प्रकार का फल, अत्यागियों को अर्थात् परमार्थ संन्यास न करने वाले कर्मनिष्ठ अज्ञानियों को ही मरने के पीछे मिलता है। केवल ज्ञाननिष्ठा में स्थित परमहंस-परिव्राजक वास्तविक संन्यासियों को, कभी नहीं मिलता है।
(श्रीमद्भगवद्गीता; अध्याय - १८, श्लोक - १२)
श्रुति जी कहती है:-
अथैकयोध् र्व उदानः पुण्येन पुण्यं लोकं नयति पापेन पापमुभाभ्यामेव मनुष्यलोकम्।
अर्थात्, इन सब नाड़ियों में से सुषुम्ना नाम की एक नाड़ी द्वारा ऊपर की ओर गमन करने वाला उदान वायु जीव को पुण्य-कर्म के द्वारा पुण्यलोक को और पाप-कर्म के द्वारा पापमय लोक को ले जाता है तथा पुण्य-पाप दोनों प्रकार के (मिश्रित) कर्मों द्वारा उसे मनुष्य लोक को प्राप्त कराता है।
(प्रश्नोपनिषद्; प्रश्न - ३/७)
कहते हैं, "स्वर्ग यहीं, नर्क यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ". कौन कहते हैं? जिनका चित्त अहंकारवश अविद्या रुपी अंधकार से आवृत है। स्वयं भगवान् और श्रुति यह कह रहे हैं कि ऐसा बिल्कुल नहीं है।
स्वार्थ विषयक कर्मों को करने वाला, लोभी एवं कामी व्यक्ति जब अपनी स्वार्थी प्रवृति के कारण दूसरों को हानि पहुँचा कर भी छल-कपट के द्वारा केवल अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए क्रियाशील होता है, तो वह व्यक्ति पापाचार में लिप्त है ऐसा कहते हैं। "केवल लेने और लेने की प्रवृति" के कारण "भार बढ़ा" समझना चाहिए। ऐसे भी पाप को भूमि से भारी कहा गया है। "इसी जन्म" में किए गए पाप कर्म के कारण भूमि से नीचे स्थित नर्क लोक में जीवात्मा मृत्योपरांत पहुँचता है। किंतु अनंत काल के लिए नहीं। इन पापकर्मों का फल भोग लेने के बाद "भार कम" होने के फलस्वरुप भूलोक की सतह पर आता है और इस जन्म और पूर्व जन्मों के संचित कर्मफल रुप समष्टि में से इस जन्म में भोगे जाने योग्य व्यष्टि कर्मफल के अनुरुप किसी "निम्न योनि" में जन्म ग्रहण करता है।
इसके विपरीत निःस्वार्थ भाव से कर्मों को संपन्न करने वाला, दानरुपी पुण्य, ईमानदारी पूर्वक समाज सेवा, अपंगों-विकलांगों के प्रति सेवा भाव रखने वाला पुण्य कर्मों में संलग्न है ऐसा कहते हैं। "केवल देने और देने की प्रवृति" के कारण "हल्का हुआ" समझना चाहिए। जैसे गैस भरे गुब्बारे की गति ऊपर की ओर होती है, ठीक उसी प्रकार "इसी जन्म" में किए गए पुण्य कर्मों के कारण भूमि से ऊपर स्वर्ग लोक में जीवात्मा मृत्योपरांत पहुँचता है। किंतु, अनंत काल के लिए नहीं। जिस प्रकार गैस भरा गुब्बारा गैस का असर खत्म होने के बाद नीचे आ जाता है, ठीक उसी प्रकार पुण्य कर्मों का फल भोग लेने के बाद "भार बढ़ने" से भूलोक की सतह पर आता है और इस जन्म और पूर्व जन्मों के संचित कर्मफल रुपी समष्टि में से इस जन्म में भोगे जाने योग्य व्यष्टि कर्मफल के अनुरुप "उच्च योनि एवं कुल" में जन्म ग्रहण करता है।
महत्वपूर्ण यह है कि उपरोक्त सभी निःस्वार्थ भाव से किए गए कर्म गुणों (सत्व, रज और तम) एवं अहंकार के अंतर्गत हैं अतः इन कर्मों से मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। अहंकार और गुणों के परे मोक्ष अर्थात् सर्वव्याप्त सत्ता उपलब्ध है।
जिसने "इसी जन्म" में स्वार्थपूर्ण कर्म और निःस्वार्थपूर्ण कर्म समान रूप से किया है, कहने का तात्पर्य है कि जो न केवल लेने और न केवल देने की प्रवृति से युक्त रहा है, जिसके पापकर्मों और पुण्यकर्मों के गणना में समानता है, ऐसा जीवात्मा मृत्योपरांत अपने संकल्पानुसार "मनुष्य योनि" में शीघ्र ही जन्म ग्रहण करता है।
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित् ॥
अनिष्ट - नरक और पशु-पक्षी आदि योनिरुप, इष्ट - स्वर्ग और देवयोनिरुप तथा मिश्र - इष्ट और अनिष्ट मिश्रित मनुष्य योनि रुप, इस प्रकार यह पुण्य-पाप रुप कर्मों का फल तीन प्रकार का होता है। ऐसा यह तीन प्रकार का फल, अत्यागियों को अर्थात् परमार्थ संन्यास न करने वाले कर्मनिष्ठ अज्ञानियों को ही मरने के पीछे मिलता है। केवल ज्ञाननिष्ठा में स्थित परमहंस-परिव्राजक वास्तविक संन्यासियों को, कभी नहीं मिलता है।
(श्रीमद्भगवद्गीता; अध्याय - १८, श्लोक - १२)
श्रुति जी कहती है:-
अथैकयोध् र्व उदानः पुण्येन पुण्यं लोकं नयति पापेन पापमुभाभ्यामेव मनुष्यलोकम्।
अर्थात्, इन सब नाड़ियों में से सुषुम्ना नाम की एक नाड़ी द्वारा ऊपर की ओर गमन करने वाला उदान वायु जीव को पुण्य-कर्म के द्वारा पुण्यलोक को और पाप-कर्म के द्वारा पापमय लोक को ले जाता है तथा पुण्य-पाप दोनों प्रकार के (मिश्रित) कर्मों द्वारा उसे मनुष्य लोक को प्राप्त कराता है।
(प्रश्नोपनिषद्; प्रश्न - ३/७)
कहते हैं, "स्वर्ग यहीं, नर्क यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ". कौन कहते हैं? जिनका चित्त अहंकारवश अविद्या रुपी अंधकार से आवृत है। स्वयं भगवान् और श्रुति यह कह रहे हैं कि ऐसा बिल्कुल नहीं है।
स्वार्थ विषयक कर्मों को करने वाला, लोभी एवं कामी व्यक्ति जब अपनी स्वार्थी प्रवृति के कारण दूसरों को हानि पहुँचा कर भी छल-कपट के द्वारा केवल अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए क्रियाशील होता है, तो वह व्यक्ति पापाचार में लिप्त है ऐसा कहते हैं। "केवल लेने और लेने की प्रवृति" के कारण "भार बढ़ा" समझना चाहिए। ऐसे भी पाप को भूमि से भारी कहा गया है। "इसी जन्म" में किए गए पाप कर्म के कारण भूमि से नीचे स्थित नर्क लोक में जीवात्मा मृत्योपरांत पहुँचता है। किंतु अनंत काल के लिए नहीं। इन पापकर्मों का फल भोग लेने के बाद "भार कम" होने के फलस्वरुप भूलोक की सतह पर आता है और इस जन्म और पूर्व जन्मों के संचित कर्मफल रुप समष्टि में से इस जन्म में भोगे जाने योग्य व्यष्टि कर्मफल के अनुरुप किसी "निम्न योनि" में जन्म ग्रहण करता है।
इसके विपरीत निःस्वार्थ भाव से कर्मों को संपन्न करने वाला, दानरुपी पुण्य, ईमानदारी पूर्वक समाज सेवा, अपंगों-विकलांगों के प्रति सेवा भाव रखने वाला पुण्य कर्मों में संलग्न है ऐसा कहते हैं। "केवल देने और देने की प्रवृति" के कारण "हल्का हुआ" समझना चाहिए। जैसे गैस भरे गुब्बारे की गति ऊपर की ओर होती है, ठीक उसी प्रकार "इसी जन्म" में किए गए पुण्य कर्मों के कारण भूमि से ऊपर स्वर्ग लोक में जीवात्मा मृत्योपरांत पहुँचता है। किंतु, अनंत काल के लिए नहीं। जिस प्रकार गैस भरा गुब्बारा गैस का असर खत्म होने के बाद नीचे आ जाता है, ठीक उसी प्रकार पुण्य कर्मों का फल भोग लेने के बाद "भार बढ़ने" से भूलोक की सतह पर आता है और इस जन्म और पूर्व जन्मों के संचित कर्मफल रुपी समष्टि में से इस जन्म में भोगे जाने योग्य व्यष्टि कर्मफल के अनुरुप "उच्च योनि एवं कुल" में जन्म ग्रहण करता है।
महत्वपूर्ण यह है कि उपरोक्त सभी निःस्वार्थ भाव से किए गए कर्म गुणों (सत्व, रज और तम) एवं अहंकार के अंतर्गत हैं अतः इन कर्मों से मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। अहंकार और गुणों के परे मोक्ष अर्थात् सर्वव्याप्त सत्ता उपलब्ध है।
जिसने "इसी जन्म" में स्वार्थपूर्ण कर्म और निःस्वार्थपूर्ण कर्म समान रूप से किया है, कहने का तात्पर्य है कि जो न केवल लेने और न केवल देने की प्रवृति से युक्त रहा है, जिसके पापकर्मों और पुण्यकर्मों के गणना में समानता है, ऐसा जीवात्मा मृत्योपरांत अपने संकल्पानुसार "मनुष्य योनि" में शीघ्र ही जन्म ग्रहण करता है।